कोई नहीं करना चाहता सच की खेती _मणिपुरी आपदा को भी चुनावी अवसर में बदलने से नहीं चूके प्रधानपंत_

संपादकीय। गलियों, पहाड़ों, और घाटियों से सरकता हुआ मणिपुर तीन दिन तक लोकसभा में सुबकता रहा, विपक्ष मणिपुर का नाम लेकर दहाड़ें मारता रहा मगर आंकड़ों से मजबूत सत्ताईयों के कानों में जूं तक नहीं रेंगी। जबकि अविश्वास प्रस्ताव मणिपुर के मुद्दे पर ही लाया गया था।
सत्ताई पक्ष की आधी बिरादरी को विपक्ष के एक नेता की फ्लाइंग किस तो दिखाई दे गई और जबरदस्त तरीके से छाती पीट कर हाय-तौबा भी मचाई गई मगर मणिपुर की आधी बिरादरी को नग्न कर सार्वजनिक रूप से घुमाये जाने पर सत्ताईयों के मुखिया से लेकर कारिंदों तक की आंखों में शर्म की जरा सी लकीर तक दिखाई नहीं दी। तीन दिनों तक सत्ताई पक्ष और उसके पक्षधर पूरी बेशर्मी के साथ एक दल विशेष के पुरखों को कोसते हुए अपने पापों को पुण्य बताने की कोशिश में लगे रहे।
इसे देश का दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है कि मणिपुर को जितना नग्न मणिपुर वासियों ने किया कहीं उससे ज्यादा तो मणिपुर को नंगा संसद में बैठे सत्ताई नशे में चूर माननीयों ने कर डाला। पिछले तीन महीने से मणिपुर जल रहा है और सत्ताई मुखिया खुद की छवि चमकाने के लिए देश - विदेश एक कर रहा है। राजनीतिक कार्रवाई के नाम पर तीन महीने में हासलाई शून्य है।
इसमें कोई शकोसुगहा नहीं है कि अगर मणिपुर में दूसरे दल की सरकार होती तो अभी तक दर्जनों बार राष्ट्रपति शासन लग चुका होता। मगर मणिपुर में केंद्रीय सत्ताई दल की सरकार है इसलिए उसके सारे पापकर्म को पुण्यकर्म वाले खाता-बही में ही लिखा जायेगा। जिसकी सुपारी भाड मीडिया लेकर मुस्तैदी से लगा हुआ है। तभी न निर्वस्त्र महिलाओं का वीडियो वायरल होने के बाद भी न तो राज्य सरकार के कानों में जूं रेंगी न ही केन्द्र सरकार के कानों में।
कहा जाता है कि विपक्ष ने प्रधान पंत की चुप्पी तोड़ने के लिए ही अविश्वास प्रस्ताव को लोकसभा में पेश किया। प्रधान पंत की चुप्पी तुड़वाने में तो विपक्ष सफल रहा मगर ऐसा लगा कि प्रधान पंत ने देश की सबसे बड़ी पंचायत में खड़े होकर मणिपुर के घावों पर मलहम लगाने के बजाय उसके घावों पर नमक छिड़कना ज्यादा बेहतर समझा। इतना ही नहीं आपदा को अवसर में बदलने की महारत हासिल कर चुके प्रधान पंत तो अविश्वास प्रस्ताव के अपने जबाव को ही 2024 के संभावित लोकसभाई चुनावी भाषण में ही रंगते हुए दिखाई दिए ।
जन सामान्य का मानना है कि देश की सबसे बड़ी पंचायत में संख्या बल के आगे अविश्वास प्रस्ताव ही नहीं गिरा है बल्कि साथ-साथ वहां मणिपुर वासियों की अस्मिता भी गिरी है। वह भी तब जब देश अपनी स्वतंत्रता का अमृत कालीन महोत्सव मना रहा है।

क्या से क्या बना दिया गांधी को राजनीतिक स्वार्थपरिता के लिए राजनीतिक दलों ने_
_आजादी के 76 साल बाद भी गांधी प्रासंगिक मगर केवल वोट कबाड़ने के लिए !
आजादी के अमृत महोत्सव काल के अगस्त महीने में मौलाना अबुल कलाम आजाद, सीमांत गांधी खान अब्दुल गफ्फार खान और महात्मा गांधी के कहे को भी याद किया जाना प्रासंगिक होगा ।
_1947 में 14 - 15 अगस्त की दरमियानी रात जब विभाजन को मूर्त रूप दिया जा रहा था तब मौलाना अबुल कलाम आजाद ने कहा था_ विभाजन मेरे देश की भावनाओं पर कुठाराघात है।
_सीमांत गांधी खान अब्दुल गफ्फार खान ने कहा था_  विभाजन मेरी चौड़ी छाती पर कुल्हाड़ा चलाने जैसा है

गांधी से जब बीबीसी संवाददाता ने पूछा था कि_  आप दुनिया के लिए क्या संदेश देना चाहेंगे?  _तो गांधी ने कहा था कि_  भूल जाओ कि गांधी अंग्रेजी जानता है !
गांधी के जबाव का मतलब केवल भाषा भर से  नहीं था बल्कि उस अंग्रेजियत से भी था जिसने लोगों को बांटा, आपस में लड़ाया और गरीबों-मजबूरों पर अत्याचार किए। यही कारण था कि जब आजादी की रोशनी जगमगा रही थी तब दिल्ली से हजार किलोमीटर दूर कोलकाता के पास लाशों के बीच बैठकर गांधी रुदन कर रहा था।  _यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि_ सच रो रहा था........ और झूठ का राजतिलक हो रहा था। इधर हिन्दुस्तान में...... उधर पाकिस्तान में।
अफसोस यह है कि हर राजनीतिक दल गांधी के नाम पर वोट तो कबाड रहा है मगर अनुसरण करने से कोसों दूर भागता है। आजादी के 76 साल बाद भी गांधी की भावनाओं का सम्मान ना तो कोई नेता कर रहा है ना ही कोई राजनीतिक दल।

   _डूबा वंश कबीर का उपजा पूत कमाल_


सैध्दांतिक मतभेदों को तिलांजलि देकर व्यक्तिगत दुश्मनी में तब्दील हो चुकी राजनीति के साये में सत्ताई दल जिस तरह का नंगा नाच नाच रहे हैं उसकी सडांध से देशवासियों का सांस लेना दूभर होता जा रहा है। तथाकथित राजनीतिक दलों द्वारा सोची-समझी रणनीति के तहत देशवासियों को जाति-धर्म की अफीम चटाई जा रही है। एक जाति-धर्म के लोगों के मन में दूसरे जाति-धर्म के लोगों के प्रति नफरत के बीज बो कर मरने-मारने की फसल तैयार की जा रही है। अब तो नफरती फसल भी लहलहाती दिखाई पड़ने लगी है। हाल ही में घटित दो - तीन - चार वारदातें बोई गई नफरती फसल की ही पैदावार कही जा सकती है।
कहा जा सकता है कि ईकाई से चलकर सैकड़े तक का सफर तय करने वाली राजनीतिक पार्टी की कुत्सित मानसिकता का ही नमूना है देश की सबसे पुरानी पार्टी के लोगों को संवैधानिक संस्थाओं के जरिए नेस्तनाबूद करने की साजिशें।
राहुल गांधी की सांसद पद से बर्खास्तगी को उसी साजिश का हिस्सा कहा जा सकता है। निचली अदालत के जरिए राहुल गांधी के सिले गये होंठों की सीवन को आखिरकार सर्वोच्च न्यायालय ने उधेड दिया है । तब सवाल यह है कि सर्वोच्च न्यायालय के जरिए हुई राहुल की वापसी का फायदा उसकी पार्टी कितना उठा पायेगी।
निश्चित रूप से राहुल की संसद में वापसी को उस पार्टी के लिए सुनहरा मौका कहा जा सकता है। वैसे तो राहुल की संसद से बर्खास्तगी भी पार्टी के लिए एक मौका ही थी। मगर पार्टी के लोगों की जिस तरह की राष्ट्र व्यापी प्रतिक्रिया होनी चाहिए थी दिखाई नहीं दी। एक दो दिन के रस्म अदायगी प्रदर्शन के बाद नेता - कार्यकर्ता सिमट कर घरों में बैठ गए।
पार्टी नेतृत्व कभी तो गहलोत - पायलट विवाद सुलझाने में उलझा रहा तो कभी अजय माकन की भूमिका नापने में लगा रहा। कहा जा सकता है कि देशभर में पार्टी को जो सहानुभूति मिलनी थी वह नहीं मिल पाई। तथाकथित राजनीतिक दलों ने राहुल की छवि ऐसी बनाकर रख दी है जैसे हर शहर में एक छद्म नामधारी "मुन्ना मेयर" की बना दी जाती है।

अश्वनी बडगैया अधिवक्ता
स्वतंत्र पत्रकार

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