'कोई तरस रहा उजियारे को तो कोई सूरज बांधे सोता है' अन्तस कलह से जूझ रही पार्टियां

कटनी। जैसे - जैसे विधानसभा चुनाव के घड़ी की सुई खिसकती जा रही है वैसे - वैसे भाजपा हाईकमान की धड़कनें तेज होती जा रही है। पिछले डेढ़ दशक से येन-केन सत्ता पर काबिज भाजपा को इस बार फिर से सत्ता पर वापसी टेढ़ी खीर नजर आ रही है।

एक ओर जहां शिवराज को लेकर जनता के बीच अच्छी-खासी नाराजी दिखाई दे रही है तो वहीं दूसरी ओर नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता का ग्राफ भी गिरता चला जा रहा है। यही कारण है कि कहने को भले ही पार्टी की कुर्सी जे पी नड्डा के पिछाडी के नीचे हो मगर लगाम अमित शाह ने अपने हाथ में थामी हुई है। यही कारण है कि अमित शाह को बार - बार मध्यप्रदेश की चौखट नापना पड़ रही है।

सतही तौर पर शांत दिख रही पार्टी के भीतर प्रदेश के सत्ताई नेतृत्व को लेकर खासा घमासान मचा हुआ है। पिछले कुछ दिनों तक मुख्यमंत्री और प्रदेश अध्यक्ष को बदले जाने की खबरें सुर्खियों में बनी रहती थी। जनता द्वारा दिए गए जनादेश से 2018 में सत्ता से बाहर हो चुकी पार्टी को अपनी फितरतों से फिर सत्तासीन कराने में अहम किरदार निभाने वाले शिवराज को बदलने का साहस दिल्ली में बैठा हाईकमान नहीं जुटा पाया। इसी तरह जातीय समीकरण के चलते प्रदेशाध्यक्ष विष्णुदत्त शर्मा को भी ढोने के लिए पार्टी हाईकमान अभिशप्त है वरना क्या कारण था कि प्रदेशाध्यक्ष पद पर प्रहलाद पटैल की ताजपोशी आउटर तक पहुंचने के बाद भी टालना पड़ी।

प्रहलाद पटैल को प्रदेशीय कमान थमाने के साथ ही जातीय समीकरण को साधने के लिए शिवराज को भी बदलना अतिआवश्यक हो जाता। शायद यही कारण है कि ऐन चुनाव की नजदीकी के कारण पार्टी के कर्णधार बदलाव का साहस नहीं जुटा पाये।

अब जिस तरह की खबरें भाजपाई किचन से बाहर आ रही हैं उन पर यदि विश्वास किया जाय तो 2023 का विधानसभाई चुनाव शिवराज के नेतृत्व में नहीं लड़ा जायेगा। यहां तक कि इस बार पार्टी किसी दूसरे को भी वेटिंग सी एम के रुप में प्रोजेक्ट नहीं करेगी। अमित शाह की दखलंदाजी सभी गुटीय महंतो को एकजुट होकर सामूहिकता का परिचय देने का संदेश देती दिख रही है।

कटनी जिले की चारों विधानसभायें भाजपा नेतृत्व के लिए नाक का बाल बनी हुई हैं। जिसकी एक वजह है कटनी से सांसद विष्णुदत्त शर्मा का प्रदेशाध्यक्ष होना। दूसरी वजह है जिले का नेतृत्व अत्यधिक कमजोर और लचर होना। दशक बीतने को आये मगर आजतक दत्तकीय विधायकों को पार्टी का खांटी कार्यकर्ता आत्मसात नहीं कर पाया है । शायद यही कारण है कि पिछले कुछ समय से विजातीय नेताओं को दिए जा रहे अति महत्व के चलते सजातीय कार्यकर्ता पार्टी छोड़ रहे हैं। और उन्हें न तो जिले के जिम्मेदारों की टीम रोक पा रही है और न ही खुद विष्णुदत्त शर्मा। जिसे राजनीतिक गलियारों में प्रदेशाध्यक्ष की नाकामी के रूप में देखा जा रहा है।

आज की स्थिति में भले ही कटनी जिले में  भाजपा के तीन विधायक हों मगर 2023 के चुनाव के पूर्व जो खबरें भोपाल से लेकर दिल्ली तक पहुंच रहीं और जिस खबर ने दिल्ली तक का टेंशन बढाया हुआ है वह यही है कि वर्तमान में भाजपा कटनी जिले की एक भी सीट जीतने की स्थिति में नहीं है।

हकीकत तो यही है कि संदीप हो या संजय दोनों को मूल भाजपाई आज भी अपना मानने को तैयार नहीं हैं। जहां संजय ने जन मानस और भाजपाईयों की नब्ज को भांपते हुए चुनाव लडूं या ना लडूं का इमोशनल ब्लैकमेलिंग पांसा फेका है वहीं संदीप तेल देखो तेल की धार देखो का अनुसरण करते हुए दिख रहे हैं।

मुडवारा और विजयराघवगढ़ की राजनीति को करीब से जानने वालों का कहना है कि फिलहाल भाजपा के पास संदीप और संजय का कोई विकल्प मौजूद नहीं है। संदीप और संजय को लेकर भाजपा के भितरखाने उठ रहे बगावत के सुरों ने दिल्ली तक का ब्लडप्रेशर बढाया हुआ है।

हाल ही में गुपचुप तरीके से कराये गये प्रदेशाध्यक्ष के सर्वे में ऐसा ही पाया जाना बताया जा रहा है। दिल्ली और भोपाल के लिए राहत भरी रिपोर्ट यह है कि प्रमुख प्रतिद्वंद्वी पार्टी कांग्रेस के पास भी ऐसा कोई जनप्रिय और कद्दावर नेता नजर नहीं आ रहा है जो भाजपा के इन दो चेहरों को पटकनी देने की क्षमता रखता हो भले ही आ रही मीडिया रिपोर्ट प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बना रही है।

बहोरीबंद विधानसभा क्षेत्र में उठ रही स्थानीय कैंडीडेट की मांग को भांपते हुए वर्तमान विधायक ने भी दूसरे विधानसभा क्षेत्र को टटोलना शुरू कर दिया है। बहोरीबंद के कद्दावर भाजपाई नेता शंकर महतो ने भाजपा छोड़कर भाजपा की मुसीबतों को जरूर बढाया है फिर भी वहां भाजपा के पास पांडे का रिप्लेसमेंट मौजूद है। एसटी के लिए रिजर्व बडवारा विधानसभा में जरूर भाजपा आज भी निखालिस एसटी कैंडीडेट नहीं तलाश पाई है। एकबार फिर वही घिसे पिटे रंगे हुए एसटी ने टिकिट की दावेदारी ठोंक कर भोपाल को पशोपेश में डाल दिया है।

प्रदेश में चुनावी बयार बहनी शुरू हो गई है। भाजपा और कांग्रेस के साथ ही तीसरा विकल्प बनने की संभावनाएं तलाश रही आम आदमी पार्टी (आप) ने अपने - अपने कार्यकर्ताओं की पूछ-परख बढा दी है। भाजपा की ओर से जहां अमित शाह ने दिल्ली - भोपाल एक किया हुआ है वहीं आप सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल भी प्रदेश की नब्ज टटोलने के लिए दौरा कर चुके हैं। कांग्रेस की ओर से अभी तक सारा दारोमदार प्रदेशाध्यक्ष कमलनाथ अपने कांधे उठाए घूम रहे हैं। वैसे 2018 में हारी हुई सीटों को चुस्त-दुरुस्त करने की जवाबदेही राज्यसभा सांसद दिग्विजय सिंह को सौंपी गई है। खबर है कि भाजपा के कद्दावर नेता नरेन्द्र तोमर भी कटनी जिले में भाजपा का स्वास्थ परीक्षण करने के लिए आ रहे हैं।

सजातीय और विजातीय के अंतर्द्वंद से कांग्रेस भी अछूती नहीं है। वहां भी भाजपा और अन्य पार्टियों से आये नेताओं को दोयम दर्जे की नजर से देखा जा रहा है। गाहे-बगाहे इसकी पीड़ा का इजहार निखालिस कांग्रेसियों द्वारा किया भी जाता है कि क्या विपरीत परिस्थितियों में कांग्रेस का झंडा उठाए रखने वाले लोगों की नियत झंडा बैनर लगाये - उठाये घूमना, जिंदाबाद - मुर्दाबाद के नारे बुलंद करना ही है ?

फर्क इतना है कि जहां भाजपा सत्ता विस्तार की भुखमरी मिटाने के लिए विजातियों को गोद में बैठा रही है वहीं पिछले बीस साल का सूखा मिटाने के लिए छटपटा रही कांग्रेस विजातियों को सिर पर बैठाने के लिए मजबूर है ।


अश्वनी बडगैया अधिवक्ता

स्वतंत्र पत्रकार

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