अपराधियों के हो चुके राजनीतिकरण पर क्या नकेल कस पायेगी देश की सबसे बड़ी अदालत ?

 खरी-अखरी(सवाल उठाते हैं पालकी नहीं)


अगर किसी सरकारी कर्मचारी को दोषी ठहराया जाता है तो वह जीवन भर के लिए सेवा से बाहर हो जाता है, फिर दोषी व्यक्ति संसद में कैसे लौट सकता है ? कानून तोड़ने वाले कानून बनाने का काम कैसे कर सकते हैं ? राजनीति का अपराधीकरण एक बड़ा मुद्दा है और चुनाव आयोग को इस पर ध्यान देना चाहिए। हमें यह बताया जाना चाहिए कि जो व्यक्ति सरकारी सेवा में बने रहने के योग्य नहीं है वह मंत्री कैसे बन सकता है ? यह भारत की राजनीति का नंगा सच है। जिस पर सवाल उठाते हुए सुप्रीम कोर्ट जजेज जस्टिस मनमोहन और जस्टिस दीपांकर दत्ता ने याचिका की सुनवाई करते हुए टिप्पणी की और केन्द्र सरकार से इस पर जबाब मांगा है। केन्द्र सरकार ने बकायदा हलफनामे में शर्म को शर्मसार करने वाला जबाब पेश कर कहा है कि आजीवन प्रतिबंध लगाना सही है या नहीं यह पूरी तरह से संसद के अधिकार क्षेत्र में आता है। यह न्यायिक समीक्षा संबंधी सुप्रीम कोर्ट की शक्तियों से पूरी तरह से परे है। विजय हंसारिया ने एसोसिएशन फार डेमोक्रेटिक रिफार्म्स (एडीआर) की रिपोर्ट का हवाला देते हुए वकील स्नेहा कलीता के जरिए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर मांग की है कि आपराधिक पृष्ठभूमि वाले सांसदों की सदस्यता रद्द कर उन्हें सलाखों के पीछे भेजने के साथ ही आपराधिक मामलों में लिप्त व्यक्तियों पर आजीवन चुनाव पर रोक लगाई जाए। 

एसोसिएशन फार डेमोक्रेटिक रिफार्म्स (एडीआर) ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि सांसदों और विधायकों के खिलाफ 1 जनवरी 2025 तक 4732 से अधिक आपराधिक मामले एमपी-एमएलए कोर्ट में लंबित हैं। इनमें 892 मामले  तो अकेले 2024 में ही दर्ज किये गये हैं। देश और प्रदेश की सबसे बड़ी पंचायत में माननीय का दर्जा हासिल किये इन व्यक्तियों के ऊपर हत्या, हत्या का प्रयास, डकैती, अपहरण, फिरौती, बलात्कार, यौनाचार, महिलाओं के खिलाफ अपराध, नफरती साम्प्रदायिक बयानबाजी जैसे गंभीरतम आरोप लगे हुए हैं। संसद और विधानसभाओं में अपराधियों के माननीय बनने की संख्या चुनाव दर चुनाव बढ़ती चली जा रही है। अकेले संसद पर नजर डालें तो एडीआर की रिपोर्ट बताती है कि 2024 में हुए लोकसभा चुनाव में माननीय बने 543 लोगों में से 251 लोगों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं, जो लगभग 46 फीसदी के आसपास होता है यानी कहा जा सकता है कि भारत की सबसे बड़ी पंचायत में अपराधियों का बोलबाला है। दलील आधार पर नजर डालें तो बीजेपी के 240 सांसदों में से 94 (39 फीसदी) , कांग्रेस के 99 सांसदों में से 49 (49 फीसदी), समाजवादी पार्टी के 37 सांसदों में से 21 (45 फीसदी), टीएमसी के 29 सांसदों में से 13(45 फीसदी), डीएमके के 22 सांसदों में से 13 (59 फीसदी), टीडीपी के 16 सांसदों में से 8 (50 फीसदी), शिवसेना के 7 सांसदों में से 5 (71 फीसदी) पर गंभीरतम धाराओं में मामला दर्ज है। बिना झिझक कहा जा सकता है कि इस मामले में सारी राजनीतिक पार्टियां हमाम में एक साथ नंगी हैं, भले ही वो पब्लिक के बीच में एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप करती रहती हैं। इस मामले में जनता भी उतनी ही दोषी है जितनी राजनीतिक पार्टियां। 

चुनाव दर चुनाव संसद में प्रवेश करते अपराधों में लिप्त लोगों की बढ़ती हुई संख्या पर नजरें इनायत करें तो 2009 में 162 अपराधी थे उनमें 76 लोग गंभीरतम अपराध में संलिप्त थे। 2014 में संसद पहुंचे 185 आपराधिक पृष्ठभूमि वालों में से 112 पर संगीन धाराओं में मामले दर्ज थे। इसी तरह से 2019 की लोकसभा में 233 आपराधिक मामलों में लिप्त लोगों की एंट्री होती है उसमें भी 159 लोगों पर गंभीर आरोप लगे हुए थे। 2024 में आपराधिक जगत से आये लोगों की संख्या बढ़कर 251 हो जाती है और उसमें भी 170 लोगों पर संगीन धाराओं पर मामला दर्ज है। मतलब 2009 से 2024 के बीच गंभीरतम आपराधिक मामलों में शामिल सांसदों की संख्या में 124 फीसदी की बढोत्तरी हो चुकी है। नरेन्द्र मोदी का मंत्रीमंडल भी हत्या, हत्या का प्रयास, डकैती, अपहरण, बलात्कार, यौनाचार, दुष्कर्म, महिलाओं के खिलाफ अत्याचार जैसे आरोपियों से भरा पड़ा है जिनकी संख्या 28 (39 फीसदी) से अधिक बताई जा रही है। देश के गृह मंत्री की कुर्सी पर बैठे अमित शाह के ऊपर तो तड़ीपार तक का अमिट दाग लगा हुआ है। इतना ही नहीं जस्टिस लोया की संदेहास्पद मौत (हत्या) में भी यदा-कदा अमित शाह की संलिप्तता की चर्चाओं का बाजार गर्म होता रहता है। एमपी-एमएलए कोर्ट में सांसदों और विधायकों के लंबित आपराधिक मामलों की संख्या 5 हजार से ज्यादा बताई जा रही है उसमें भी 2 हजार से ज्यादा मामले 5 साल पुराने कहे जा रहे हैं। 

याचिकाकर्ता हंसारिया का कहना है कि सांसद-विधायक इतने पावरफुल होते हैं कि जांच करने वाले उनके सामने नतमस्तक खड़े दिखाई देते हैं तो फिर जांच होगी कैसे ? जब जांच ही नहीं होगी और जांच रिपोर्ट  अदालत को सौंपी ही नहीं जायेगी तो फिर अदालत फैसला देगी कैसे ? यह भी देखने में आया है कि पुलिस की जांच भी सांसद-विधायक की जाति-धर्म को देख कर होती है। उदाहरण के लिए आजम खान, इरफान सारंगी आदि का नाम लिया जा सकता है ! बताया जाता है कि दागी सांसदों के आरोपों पर अगर अदालत ईमानदारी से समय पर सुनवाई कर समय पर फैसला सुना दे तो 30 फीसदी से ज्यादा संसद एक झटके में खाली होने के साथ ही आपराधिक पृष्ठभूमि से जुड़े हुए लोगों से मुक्त हो जायेगी। कानून में प्रावधान है कि 2 साल से ज्यादा का सजायाफ्ता सांसद नहीं रह सकता है उसकी सदस्यता तत्काल प्रभाव से समाप्त हो जायेगी तथा वह आगामी 6 साल तक चुनाव भी नहीं लड़ पायेगा। एसोसिएशन फार डेमोक्रेटिक रिफार्म्स की रिपोर्ट के मुताबिक मोदी के 72 मंत्रियों में 28 मंत्रियों पर आपराधिक मामले दर्ज हैं उनमें भी 19 मंत्रियों पर तो संगीन धाराएं लगी हुई हैं जिसमें उन्हें फांसी से लेकर आजीवन कारावास तक की सजा हो सकती है। वैसे तो इस सड़ांध को चुनाव आयोग चुनाव के दौरान ही रोक सकता है आपराधिक लोगों को चुनाव लड़ने से रोक कर ! साथ ही राजनीतिक दलों में खासकर सत्ता दल के पास संसद को पाक-साफ रखने की इच्छा शक्ति होनी चाहिए मगर जिस तरीके से जिस तरह का जबाब मोदी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में दाखिल किया है उससे तो यही लगता है कि सुप्रीम कोर्ट कितनी भी राजनीति के अपराधीकरण को लेकर चिंतित हो मगर आपराधिक लोग राजनीतिक दलों की प्राणवायु बन चुके हैं क्योंकि अब राजनीति का अपराधीकरण नहीं अपराधियों का राजनीतिकरण हो चुका है और यही देश की सच्चाई बन चुकी है।

फिलहाल गेंद सुप्रीम कोर्ट के पाले में है। सुप्रीम कोर्ट की बागडोर संविधान निर्माता बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर के अनुयायी सीजेआई जस्टिस बीआर गवई के हाथों में है। जिस तरह से सत्ता और सत्ता की ढाल बने संगठन संविधान, कानून और अदालतों पर छींटाकशी कर रहे हैं, अपरोक्ष रूप से संविधान बदलने तक की बयानबाजी कर रहे हैं उससे तो सवाल यही निकलता है कि क्या देश की सबसे बड़ी अदालत संगीन धाराओं में आरोपी मंत्रियों-सांसदों के गिरेबान पर हाथ डाल पायेगा या ये चिंता भरी टिप्पणियां केवल रस्म अदायगी साबित होंगी ? 

अश्वनी बडगैया अधिवक्ता 

स्वतंत्र पत्रकार

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