परिवारजन शब्द की पतवार - लगायेगी चुनावी नैया पार
अश्वनी बडगैया अधिवक्ता
स्वतंत्र पत्रकार की कलम से
कुटिल मानसिकता के बादशाह, शातिर राजनीतिक वक्तव्य के धनी मोदी जी जब भी कुछ कहते हैं तो उसके मायने होते हैं। शब्दों के पीछे कुर्सी पकड़ का हिडन राजनीतिक ऐजेंडा भी होता है। मोदी जी की जमुहाई भी विरोधियों की लाईन छोटी करने का भाव लिए हुए दिखाई देती है।
15 अगस्त 2023 को स्वतंत्रता दिवस के दिन लालकिले की प्राचीर से देशवासियों को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने "परिवारजनों" शब्द का इस्तेमाल यों ही नहीं किया है। उसके मूल में भी 2024 की सत्ता सुन्दरी के साथ परिवारजनों की मौजूदगी में भांवर पाड़ने की सोच दिखाई देती है।
लगता है कि 2014 से लेकर 14 अगस्त 2023 तक मोदी जी के द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले शब्द "मितरो - भाईयो - बहनो अपनी सार्थकता खो चुके हैं या यूं कहा जाय कि दूरदराज गांवो तक में मोदी जी के बोलने के पहले ही आदमी - औरत - बच्चों को मोदी छबि बनाते हुए मितरो कहकर मजाक हुए उडाते देखा जा सकता है। शायद मोदी जी को इस बात का अह्सास हो गया है कि मितरो - भाईयो - बहनों शब्द की वह चमक खो सी गई है जिसने उन्हें 2014 और 2019 में दिल्ली की सल्तनत दिलाई थी मगर 2024 में फिर से वही शब्द सत्तानशी करवा पायेंगे संदेहास्पद है।
शायद इसीलिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 2024 को साधने के लिए पहली बार "परिवारजनों" शब्द का उपयोग लालकिले की प्राचीर से किया है। फिर भी मोदी जी देशीय परिवार का मुखिया होने की असफल कोशिश करते दिखाई दे रहे हैं।
नरेन्द्र मोदी देश के ऐसे इकलौते प्रधानमंत्री हैं जिन्होंने स्वतंत्रता दिवस के दिन लालकिले की प्राचीर से देशवासियों को संबोधित अपने भाषण को राजनीति की चासनी में डुबोकर परोसा है।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने भाषण में प्रमुखता से तीन शब्दों का बार बार जिक्र किया है - परिवारवाद, भृष्टाचार और अल्पसंख्यक तुष्टीकरण।
जहां तक पारिवारिक राजनीति की बात है तो वे पारिवारिक राजनीति को 2014 के पहले से कोसते चले आ रहे हैं मगर पारिवारिक राजनीति पर पहली बार स्वतंत्रता दिवस की आड़ लेकर लालकिले से प्रहार किया है। वैसे देखा जाय तो उनकी पारिवारिक राजनीति के मूल में हमेशा नेहरू - गांधी परिवार ही रहता है, खासकर वर्तमान परिदृश्य में राहुल गांधी।
इसका कारण भी है। नरेन्द्र मोदी ने आरएसएस प्रचारक परिवेश से राजनीति में प्रवेश किया है। उन्होंने राजनीतिक सफर तय हुए पहले राज्य की सल्तनत और फिर देश की सल्तनत हासिल की है। देश की सल्तनत तक पहुंचने वाले नरेन्द्र मोदी किसी कुलीन घराने का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं इसीलिए उन्होंने राजनीतिक सफर को तय करने के लिए अपनी इसी कुंठा को अपना हथियार बनाया।
राजनीतिक रास्ते पर प्रतिद्वंद्वी के रूप में मोदी जी ने अपने सामने राजनीतिक कुलीन परिवार से आने वाले राहुल गांधी को पाया। मोदी जी ने सधी हुई चाल चलते हुए राहुल गांधी को "शहजादा" के रूप में चित्रित कर दिया। भाग्यवश 2014 में मोदी जी का प्रतीकवाद कारगर रहा।
2019 में नरेन्द्र मोदी ने अपने अभियान को आगे बढ़ाते हुए एकबार फिर "कामदार बनाम नामदार" में बदलते हुए साधारण पृष्ठभूमि के सामने कांग्रेस की कुलीन वेश परम्परा को पेश किया। खास बात यह थी कि राहुल गांधी ने भी मोदी की इस धारणा को उलटने के लिए कोई विशिष्ट प्रयास नहीं किए। राहुल ने कभी भी यह बताने की कोशिश नहीं की कि उसे कांग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी राजीव और सोनिया के पुत्र होने के नाते नहीं मिली। लिहाजा बाजी एकबार फिर मोदी जी के पाले गिरी।
मगर अब 9 सालों में (दो बार प्रधानमंत्री बनने से) हालात बदल चुके हैं। नरेन्द्र मोदी जो कभी गरीब परिवार के बेटे थे आज सर्वोच्च सत्ता के शिखर पर विराजमान होकर आम से खास बन चुके हैं। वहीं राहुल गांधी ने भारत जोड़ो यात्रा के दौरान पूरे देश की पैदल यात्रा कर आमजन से जुड़न में सफलता हासिल की है। मणिपुर के राहत शिविर में पीड़ित परिवारों के बीच जाकर दिलासा देने, ट्रक चालकों, मैकेनिकों, किसानों से लेकर रेहड़ी वालों तक के साथ आत्मिक संबंध बनाने में सफल रहे हैं। भले ही राहुल के गले वंशवाद का तमगा लटका हुआ है फिर भी राहुल ने अलग हटकर अपनी एक व्यापक पहचान (खास से आम वाली छवि) बना ली है।
ऐसा नहीं है कि वंशवाद को कोसने वाली भाजपा दूध की धुली हुई है। संसद में ही आधा सैकड़ा सांसदों की जड़ें वंशवादी है। यही हाल राज्यों की विधानसभाओं - विधानपरिषदों के भी हैं। हाल ही में सम्पन्न हुए कर्नाटक विधानसभा चुनाव में दो दर्जन से ज्यादा टिकिट मात्र 10 राजनीतिक परिवारों में बांटे गए थे। यही हाल भाजपा की सहयोगी पार्टियों के हैं। हां यह अलग बात है कि मोदी पार्टी ने अपनी सुविधानुसार वंशवाद की परिभाषा गढ़ी हुई है। उनके अनुसार जहां वंशवादी पार्टियां अछूत हैं वहीं वंशवादी स्वीकार हैं। मतलब वंशवाद को लेकर दोहरी मानसिकता।
लालकिले से मोदी के निशाने पर था भृष्टाचार
2013 में अन्ना और रामदेव द्वारा प्रायोजित आन्दोलन "इंडिया अगेंस्ट करप्शन" की डोर थाम कर ही भाजपा ने दिल्ली सल्तनत पर कब्जा किया था। मनमोहन सिंह सरकार के सिपहसलारों ने भृष्टाचार के आरोपों पर काउंटर करने के बजाय जिस तरह की बचकानी हरकतें की उससे जनता का मोहभंग होता गया साथ ही भाजपा ने जनता की नब्ज पहचान कर वाचाल मास्टर नरेन्द्र मोदी को आगे कर कुछ इस तरह का मायाजाल फैलाया कि मनमोहन सरकार चारों खाने चित्त हो गई।
जनता को लगा कि मोदी सरकार देश को भृष्टाचारी रोग से मुक्त कर देगी मगर अब तक (9 साथ में) ऐसा नहीं हो पाया। अपनी सरकार को बरकरार रखने के लिए मोदी सरकार ने जिस तरह प्रवर्तन ऐजेंसियों का उपयोग किया उसने उन ऐजेंसियों की कार्यप्रणाली पर ही गम्भीर सवालिया निशान लगा दिए हैं। मोदी सरकार द्वारा इन एजेसियों का इस्तेमाल विपक्षियों को निशाना बनाकर किया जा रहा है। ये एजेसियां गैर भाजपा शासित राज्यों में ही मुस्तैद हैं। भाजपा शासित राज्यों में तो ये एजेसियां गदहे के सिर से सींग की तरह गायब दिखती हैं।
इतना ही नहीं मजे की बात तो यह है कि भृष्टाचार में आकंठ डूबे नेताओं का शुध्दीकरण भाजपा ज्वाइन करते ही हो जाता है। हकीकत तो यह है कि आज सबसे ज्यादा भृष्टाचारियों का जमावड़ा भाजपा में ही है। कहा जा सकता है कि भृष्टाचार पर जीरो टालरेंस भी चुनावी जुमला बनकर रह गया है।
अल्पसंख्यक तुष्टीकरण पर भी साधा निशाना
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने लालकिले से अल्पसंख्यक तुष्टीकरण को भी आड़े हाथों लिया। मगर वे यह भूल गए कि जिस तरह कांग्रेस पर अल्पसंख्यकों को लुभाने का आरोप लगाया जाता है उसी तरह का आरोप भाजपा पर भी अल्पसंख्यकों को सताने और बहुसंख्यकों को लुभाने का लगाया जाता है। मोदी पार्टी द्वारा राजनीति में न के बराबर अल्पसंख्यक की भागीदारी, हेट स्पीच पर बहरापन जैसी नीति अपनाई जायेगी तो भाजपा की बहुसंख्यकवादी राजनीति के उभार पर सवालिया निशान तो लगेंगे ही।
फिलहाल भाजपा और नरेन्द्र मोदी को यकीन है कि वह "परिवार जन" के नये संबोधन की पतवार थाम कर तथा सारे आरोपों का ठीकरा विपक्ष के सिर फोड़कर एकबार फिर (तीसरी बार) सत्ता हासिल कर लेगी। लेकिन दशक बीतने के बाद मोदी सरकार की रणनीति केवल विपक्ष की कमजोरियों पर ही केंद्रित नहीं रह सकती। परिवार जन सरकार से बेहतर के हकदार भी हैं।
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