भाजपा से छिटक रहे परम्परागत मतदाता
कटनी से अश्वनी बडगैया अधिवक्ता स्वतंत्र पत्रकार की कलम
उत्तर प्रदेश में लोकसभा (80) चुनाव चाहे वह 2014 के रहे हों या फिर 2019 तथा विधानसभा (403) चुनाव 2017 और 2022 में भाजपा ने एक भी मुस्लिम को पार्टी की टिकिट नहीं दी थी फिर भी उसे अच्छी-खासी सीटें मिली थी फिर क्या हुआ कि 2024 के लोकसभा चुनाव में मुस्लिम कैंडीडेट खड़ा नहीं करने के बावजूद भी भाजपा को वैसी सीटें नहीं मिली जैसी उसे 2014 और 2019 में मिली थी। भाजपा का एक वर्ग जो उठते-बैठते, सोते-जागते हिन्दू-मुस्लिम की राजनीति करता रहता है। वह एकबार फिर से मुस्लिमों के बारे में अनाप-शनाप बोलकर सामाजिक सौहार्द में जहर घोल रहा है। दुखद पहलू यह है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, गृहमंत्री अमित शाह, रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह, यूपी मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, भाजपा अध्यक्ष के साथ ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख में से किसी ने भी इसकी निंदा तक नहीं की है तो क्या यह मान लिया जाय कि जो हो रहा है उन कामों के लिए उनकी मौन स्वीकृति है। वैसे भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की मौन साधना से तो मणिपुर पिछले एक साल से जल ही रहा है।* (खरी - अखरी - अयोध्या और मणिपुर तथा देश के किसी हिस्से में होने वाली इस तरह की घटनाओं का ना तो समर्थन करता है ना ही बढावा देता है बल्कि उनकी निंदा ही करता है)
एक जाति विशेष के वोटर को कोसने के बजाय भाजपा को आत्ममंथन करना चाहिए कि ऐसे हालात आखिर क्यों और कैसे पैदा हुए कि उसे हासिये पर आना पड़ा। यही भाजपा के लिए बड़ी चिंता का विषय भी होना चाहिए। यूपी में मुस्लिम आबादी 20 फीसदी के आसपास तो पश्चिम बंगाल में 33 फीसदी के करीब है। पश्चिम बंगाल तो नहीं परंतु यूपी को तो भाजपा का गढ़ माना जाता है। पश्चिम बंगाल में 2019 के चुनाव में भाजपा ने पहली बार 18 सीटें जीती थी इस बार वह आधे पर सिमट गई समझ में आता है। मगर यूपी में उसका हासिये पर आना चिंताजनक है। पार्टी के इस हालात ने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के पक्ष और विपक्ष में तलवारें तक खींच दी है ! अगर समय रहते इस स्थिति को कंट्रोल नहीं किया गया तो भाजपा के पतन को रोकना मुश्किल हो जायेगा। भाजपा यूपी में हिन्दुओं के 50 प्रतिशत से ज्यादा वोट लाने वाले फार्मूले पर काम करती थी जिससे 20 फीसदी मुस्लिम आबादी राजनीतिक रूप से से अप्रासंगिक हो जाती थी जबकि उसे पश्चिम बंगाल में 60 फीसदी हिन्दू वोट हासिल करना पड़ता था।
आजादी के बाद से शुरू हुए राजनीतिक परिदृश्य पर नजर डालें तो समझ में आता है कि मुसलमानों ने अपने मजहबी किसी भी शख्स को अपना नेता नहीं माना यहां तक कि मौलाना आजाद को भी नहीं। उन्होंने हिन्दू नेताओं की सरपरस्ती पर भरोसा किया। चूंकि उस समय कांग्रेस के अलावा अन्य प्रभावशाली राजनीतिक दल था नहीं इसलिए वे कांग्रेस के वोटर तब तक बने रहे जब तक 1989 में विवादित स्थल बाबरी का ताला नहीं खोला गया था। इसके बाद खास तौर पर हिंदी पट्टी में विकल्प मिल जाने से वे पुराने लोहियावादी मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद यादव तथा पश्चिम बंगाल में वाम दलों की ओर मुड़ने लगे। महाराष्ट्र और केरल सहित दक्षिण भारत के दूसरे हिस्से में विकल्प नहीं होने से वे कांग्रेस से ही जुड़े रहे। यूपी में मुलायम (2002), मायावती (2007), अखिलेश (2012) और बिहार में लालू प्रसाद यादव ने यादवों और पिछड़ी जातियों के वोटर के साथ मुस्लिम वोटरों का गठजोड़ करके सरकार बनाई मगर 2014 में भाजपा ने हिन्दू वोटरों का ध्रुवीकरण कर इस गठजोड़ को विफल कर दिया। मगर इस बार हिन्दू वोटर भी यह समझ गये कि भाजपा द्वारा केवल सत्ता पाने के लिए हमारा उपयोग किया जाता है, तो जहां एक ओर मुस्लिम वोटर अपनी ताकत पहचान कर एकजुट हुए हैं तो वहीं दूसरी तरफ हिन्दू वोटरों ने भी ध्रुवीकरण का फायदा भाजपा को नहीं उठाने दिया।
जनता ने बता दिया नहीं चलेगी मनमानी
4 जून को आये चुनावी नतीजों ने चंद मिनटों में ही राजनीतिक भाषा बदल कर रख दी, खासतौर पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की। जिसका नजारा नतीजों के दिन ही भाजपा कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए नरेन्द्र मोदी के भाषण में दिखा जब वे मोदी सरकार की जगह एनडीए सरकार कह रहे थे। पिछले दस सालों में बड़े जतन से सावधानीपूर्वक गढ़े गए पर्सनैलिटी-कल्ट के चलते किसी दूसरे को फोटो में आने की अनुमति नहीं देने वाले नरेन्द्र बाबू, चंद्रबाबू और नितिश बाबू के साथ फोटो खिंचवाते नजर आये। देश तो छोडिए यूपी में भी राम मंदिर कोई चुनावी मुद्दा नजर नहीं आया। अयोध्या की हार ने तो सारे मुद्दों को स्थानीय बनाकर रख दिया जिससे भाजपा के दोनों बड़े ब्रांड मोदी और योगी एक साथ फ्लाप हो गये।
यूपी में भाजपा की पराजय में जहां समुदाय विशेष के साथ भेदभावपूर्ण नीतियों की हिस्सेदारी है तो वहीं टिकटों का अविवेकी वितरण, अपनों को छोड़ बाहरियों को गले लगाना तथा पीएम - सीएम मोदी और योगी के भाषणों में काम की बातें मसलन बिजली, पानी, रोजगार, मंहगाई, सरकारी गुंडागर्दी, सौहार्द आदि को छोड़कर मुस्लिम, मांस, मछली, मंगलसूत्र, मुजरा, भैंस आदि बेकार की बातों की भरमार ने भी अच्छा खासा योगदान दिया है । सवाल पूछा जा रहा है कि जब मोदी 74 की उमर में अपने लिए एक और मौका मांग रहे हैं अगर वह जायज है तो फिर 20 साल के युवा का नौकरी मांगना जायज क्यों नहीं है ? एक तरफ मोदी 74 साल की उमर में रिटायर नहीं होना चाहते और दूसरी तरफ बेहद अलोकप्रिय अग्निवीर योजना लाकर 4 साल की नौकरी करने के बाद नवजवानों को रिटायर कर रहे हैं। हाल तो यह है कि अग्निवीर योजना के तहत नौकरी करने वाले लड़के से कोई लड़की शादी नहीं करना चाहती।
उत्तर प्रदेश के नतीजों ने स्पष्ट रूप से बता दिया है कि राजनीति में धर्म का इस्तेमाल करने की भी अपनी सीमाएं होती है। एक सीमा के बाद वह अंध भक्तों को भी निराश करने लगती है। जिन बैसाखियों के सहारे नरेन्द्र मोदी ने लंगड़ी दौड़ दौड़ना शुरु किया है उनमें से किसी भी घटक दल में एक भी ऐसा नेता नहीं है जो मोदी की अग्निवीर योजना, एक राष्ट्र-एक चुनाव, यूसीसी योजना का समर्थक हो। चंद्रबाबू नायडू ने तो बकायदे मुस्लिम अल्पसंख्यकों के लिए आरक्षण की बकालत कर चुनाव जीता है। जबकि नरेन्द्र मोदी पूरे चुनाव के दौरान देशभर में कांग्रेस के खिलाफ यही कहकर वोट मांगते रहे हैं कि कांग्रेस ओबीसी का कोटा कम करके मुसलमानों को देना चाहती है। मुस्लिम वोटरों ने बहकावे और भडकावे में आये बिना, जिस तरह से भाजपा ने उन्हें राष्ट्रीय परिदृश्य में अप्रासंगिक बना दिया था, उसे पलट दिया है। भारतीय मतदाताओं ने राजनेताओं को यह भी बता दिया है कि उनकी ताकत जनता में निहित है। अब नीति - निर्माण में इकतरफावाद (UNILATERALISM) नहीं चलेगा।
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