निहायत घटिया दर्जे की हो रही राजनीति
कटनी/ विजयराघवगढ़। भारतीय राजनीति में चुनाव के पहले जनसेवा के नाम पर निजी हितों को साधने के लिए दलबदल करने को नेताओं ने फैशन बना लिया है। हर दलबदलू पार्टी छोड़ने के पहले पार्टी द्वारा अपनी उपेक्षा करने का ही रोना रोता है। जबकि इसके पीछे छिपी होती है "मोर पेट हाहू मैं न दईहूं काहू" वाली सोच ।
संभवतः विजयराघवगढ़ विधानसभा में अभी तक बड़े कहे जाने वाले तथाकथित तीन नेताओं ने दलबदल किया है जिसमें एक कांग्रेसी तो दो भाजपाई शामिल हैं। खास बात यह है कि इन तीनों नेताओं को उनकी पार्टी ने उन्हें नख से शिख तक नवाजा है इसके बावजूद भी दलबदल करने की इनकी हरकत। जिसे निहायत घटिया दर्जे की नमकहरामी राजनीति ही कहा जा सकता है।
विजयराघवगढ़ विधानसभा क्षेत्र में पहला दलबदल करने वाले को उसकी पार्टी ने न केवल उसको प्रदेश में सबसे युवा जिला पंचायत अध्यक्ष बनाने के बाद विधायक बनाया बल्कि उसके पिताश्री को कैबिनेट मंत्री एवं माताश्री को कटनी के प्रथम नागरिक के सम्मान से भी सम्मानित किया। इसके बावजूद उसने विरासती विधायक निर्वाचित होने के चंद महीने में ही अपना डीएनए बदलते हुए उसी पार्टी का दामन थामा जिसे गालियां देते उसकी जबान नहीं थकती थी ।
दूसरा दलबदल करने वाले को भी उसकी पार्टी ने संगठन में राष्ट्रीय स्तर पर पदासीन करने के साथ ही कैबिनेट स्तरीय वाली कुर्सी पर बैठाया मगर उसने भी अपने डीएनए को चेंज करते हुए उसी पार्टी में शामिल होना जायज समझा जिसके द्वारा निर्जला रहकर कोसने में चूक नहीं होती थी।
और अब एक बार फिर विधानसभा के चुनाव के पहले ऐसे नेता ने पार्टी पर उपेक्षात्मक आरोप लगाते हुए पार्टी छोड़ी जिसे पार्टी ने क्षेत्रीय न होने के बाद भी विधायक बनवाने के साथ ही दो बार कटनी विकास प्राधिकरण की अध्यक्षीय ताजपोशी की थी।
हां ठीक समझे आप - विजयराघवगढ़ में डीएनए चेंज करने की शुरुआत करने की नींव रखने का श्रेय जाता है कांग्रेसी संजय पाठक को। आगे चलकर उसी परम्परा का अनुसरण किया भाजपाई श्रीमती पदमा शुक्ला और धुव्र प्रताप सिंह ने।
जहां तक संजय पाठक द्वारा कांग्रेस छोड़कर सत्तारूढ़ पार्टी में शामिल होने की बात है तो कारण भी स्पष्ट थे विशुद्ध पारिवारिक और निजी व्यापारिक हित लाभ। क्योंकि कांग्रेस पार्टी में संजय के लिए कोई चुनौती नहीं थी बल्कि यह कहा जाय कि स्थानीय स्तर पर संजय कांग्रेस का पर्याय बन गया था तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।
मगर श्रीमती पदमा शुक्ला और धुव्र प्रताप सिंह द्वारा भाजपा छोड़कर कर कांग्रेस ज्वाइन करने के मूल में थी निजी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के रास्ते आ रही भीतरी चुनौतियों के साथ ही संजय पाठक रूपी रुकावट।
बरसों-बरस भाजपा के उच्च पदों पर काम करने के बाद भी चाहे श्रीमती पदमा शुक्ला हों या धुव्र प्रताप सिंह अथवा कोई और निखालिस भाजपाई कोई भी हाईकमान पर इतना प्रभाव नहीं डाल पाया जैसा दलबदलू संजय ने चंद सालों में डाल दिया। भाजपाई खेमे में तो संजय को कटनी के मामले में प्रदेशाध्यक्ष और मुख्यमंत्री से ज्यादा प्रभावशाली माना जाता है।
कहा जाता है कि कटनी जिले में पटवारी से लेकर कलेक्टर तक और सिपाही से लेकर एसपी तक की पोस्टिंग संजय से पूछ कर की जाती है। मतलब फिर तो उसे कटनी का सुपर सीएम कहा जा सकता है।
जब तक संजय कांग्रेस में था तो कांग्रेस संजयमय रही और अब जब संजय भाजपा में है तो भाजपा संजयमय हो गई है। स्वाभाविक था अपने राजनीतिक वजूद को बचाये रखने के लिए पहले श्रीमती पदमा शुक्ला को और अब धुव्र प्रताप सिंह को भाजपा छोड़कर दूसरी पार्टी का दामन थामना।
विजयराघवगढ़ विधानसभा कभी भी न तो कांग्रेस का गढ़ रहा है न भाजपा की बपौती। विजयराघवगढ़ के मानस ने दोनों पार्टियों को बारी - बारी से मौका दिया है। सत्येंद्र पाठक ने कांग्रेस की जिस राजनीतिक जमीन पर खेती की है उसे बनाने में सर्वाधिक योगदान दिया है स्वर्गीय अरविंद पाठक के पिता स्वर्गीय हरी प्रसाद पाठक ने। और यह भी सच है कि सत्येंद्र पाठक तब तक विधायक नहीं बन पाये जब तक उन्होंने "अरविंदम शरणम गच्छामि" नहीं कर लिया।
ठीक इसी तरह भाजपा की राजनीतिक जमीन तैयार करने के लिए लाल सतेन्द्र सिंह बघेल (पूर्व महाधिवक्ता) को याद किया जाता है। जिसकी बोई फसल काटने का काम किया स्वर्गीय लाल राजेन्द्र सिंह बघेल ने। जहां तक संजय की बात है तो उसे विजयराघवगढ़ में राजनीति करने की जमीन पिता से विरासत में मिली है। वहीं अगर श्रीमती पदमा शुक्ला की बात है तो उन्हें राजनीति में लाने का श्रेय लाल राजेन्द्र सिंह बघेल को जाता है।
कहा जाता है कि राजनीति में गुरू होकर भी कोई किसी का गुरु नहीं होता तो फिर चेला होने का तो सवाल ही नहीं है । चेले को जब भी मौका मिलता है वह सबसे पहले अपने गुरु को निपटाने का काम करता है। वर्तमान राजनीति में लाल कृष्ण आडवाणी (गुरु) और नरेन्द्र मोदी (चेला) से बेहतर उदाहरण दूसरा हो नहीं सकता। वैसा ही कुछ हुआ था विजयराघवगढ़ में जब राजेन्द्र सिंह बघेल और श्रीमती पदमा शुक्ला के बीच राजनीतिक तलवारें खिंची दिखी थीं और उसी की परिणति थी बडवारा से लाकर धुव्र प्रताप सिंह को विजयराघवगढ़ विधानसभा से चुनाव लड़वाना। जिसमें भाजपा सफल भी रही।
जहां तक विजयराघवगढ़ के विकास की प्रारंभिक ईंट रखने की बात है तो यह काम किया था श्रमिक नेता से विधायक बने स्वर्गीय आर के शर्मा ने। आर के शर्मा ने ही दो भागों में बंटे विजयराघवगढ़ विधानसभा क्षेत्र को एक करने के लिए महानदी पर पुल बनवाने, विजयराघवगढ़, कैमोर और बरही को नगर पंचायत का दर्जा दिलवाने और विजयराघवगढ़ राजघराने के स्वर्गीय सरजू प्रसाद के नाम पर शासकीय अस्पताल का निर्माण करवाने की नींव रखी थी।
बताया जाता है कि अस्पताल बनाने के लिए स्थानीय स्वर्गीय शंकर लाल दुबे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी ने अपनी पैतृक कृषि भूमि दान में दी थी जिस पर आज 30 बिस्तरीय अस्पताल बना हुआ है। यह अलग बात है कि आज अस्पताल खुद कैंसर रोग से पीड़ित होकर ईलाज के लिए तरस रहा है।
धुव्र प्रताप सिंह के कांग्रेस ज्वाइन करने से भाजपा और कांग्रेस के केंडीडेट भी लगभग तय ही हो गये हैं। एकबार फिर पुराने प्रतिद्वंद्वी आमने - सामने होंगे। हां दोनों की पार्टियां और झंडे - डंडे जरुर बदले हुए होंगे। एक के सामने अपनी जीत को बरकरार रखने की चुनौती होगी तो दूसरे के सामने अपनी हार का बदला लेने का मौका होगा। एक के सामने पार्टी के भीतर से कोई चुनौती नहीं है तो दूसरे को पार्टी के भीतर ही कदम - कदम पर लंगड़ी - लंगड़ी खेलना होगा।
सवाल यही है कि क्या वह नट की भांति बैलेंस बनाते हुए तलवार की धार पर चल पायेगा ? क्या वह पार्टी के भीतर छिपे मझधार में डुबोने के लिए तैयार बैठे जयचंदो - मीरजाफरों से पार पा कर चुनावी नैया किनारे लगा पायेगा ? सवालों का जवाब जानने के लिए इंतजार तो करना ही होगा।
अश्वनी बडगैया अधिवक्ता
स्वतंत्र पत्रकार
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