तिरंगे के आवरण में आचरण गायब "तिरंगा महज ईवेंट है मीडिया के लिए अपनी टीआरपी बढ़ाने की खातिर"


संपादकीय। जिस दिन तिरंगे के मर्म को समझ लिया जायेगा, उसकी आन-बान-शान में मर मिटने वालों के पराक्रम की गाथा नई पीढ़ी के मनो-मस्तिष्क में उतार दी जायेगी तो फिर अलग से किसी भी तरह का कोई भी अभियान चलाने की जरूरत नहीं पड़ेगी।

इलेक्शन वाॅच और एडीआर की रिपोर्ट के मुताबिक देश की संसद और विधानसभाओं में तकरीबन आधे निर्वाचित प्रतिनिधि अपराधिक प्रवृति के हैं। ये तिरंगे के अगल-बगल खड़े होकर संविधान और देश सेवा की शपथ लेते हैं। बेचारा तिरंगा फहरते हुए इन्हें देखता रह जाता है कुछ कर नहीं पाता। जब एक बार सांसद - विधायक बना व्यक्ति अपनी कम से कम तीन पीढ़ी का भविष्य साध लेता है। अगर मंत्री बन गया तो सात पुश्तों की चिंता से मुक्त।

तिरंगे की कहानी और उसके मर्म से नाता रखने वाले सदैव मुख्य पृष्ठ से अदृश्य रहते हैं। आज का कड़वा सच यह है कि तिरंगे की आन-बान-शान के लिए जीवन न्योछावर करने वाले शहीदों के घरों में उजाला है या अंधेरा यह देखने की फुर्सत किसी के पास नहीं है। देश की हर लोकतांत्रिक संस्था के कंगूरे पर तिरंगा लहराता है और उसके नीचे बैठे नीति नियंता क्या कर रहे हैं सारा देश जानता है।

कहना गलत नहीं होगा कि लोकतंत्र के पवित्र संस्थान घोड़ा मंडी और मच्छी बाजार जैसे बन गए हैं जहां दोपाये सांसद - विधायक खरीदे - बेचे जाते हैं। कार्पोरेट - कैपटिलिस्टों के लिए उनका जमीर बिकने के लिए शो-केस में सजा दिखाई देता है। मतलब तिरंगे के आवरण में आचरण गायब।

एक था कबीर जिसे अपने दौर का जीवंत मीडिया कहा जा सकता है। दूसरा आज का मीडिया है जो आये दिन किये-धरे पर रायता फैलाता रहता है। इसके - उसके लिए तोते की माफिक टें-टें करता रहता है। उसके लिए तिरंगा - संविधान - लोकतंत्र सभी एक ईवेंट हैं अपनी टीआरपी बढ़ाने के लिए।

15 अगस्त से पहले पखवाड़े भर "घर घर तिरंगा - हर घर तिरंगा" अभियान चलाया गया आजादी के अमृत उत्सव के पचहत्तर साल के नाम पर। मगर आजादी और स्वतंत्रता के मायने एक नहीं अलग - अलग हैं। आजादी का मतलब जेएनयू या दूसरे रेडिकल गिरोहों के बीच से जब तब उठती ध्वनि है। नौकरशाही के आगे मजबूर सरकार भी पचहत्तर के ऊपर आजादी को लाद कर ढो रही है। सही शब्द है स्वाधीनता (स्वतंत्रता) यानी पराधीनता से मुक्ति के पचहत्तर साल। तिलक का मूलमंत्र था "स्वराज हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है और इसे हम लेकर रहेंगे"।

बहरहाल जन सरोकार से जुड़े कई महकमों को मूल काम छोड़कर तिरंगा रैली निकालने में लगा दिया गया। इस बीच यही सुनाई दिया कि बलात्कार - हत्या की रिपोर्ट बाद में लिखी जायेगी अभी तो दरोगा मुंशी के साथ घर घर तिरंगा लहराने निकले हैं। पिछले साल इन्हीं दिनों सूबे के नगर निकायों के माननीय दूर शहर के रिसार्ट में तिरंगाबाजी कर रहे थे। इस साल पार्षद - सरपंच पति तिरंगा के नीचे अपनी पत्नी की जगह खुद की फोटो लगा देश सेवा की शपथ लेते दिख रहे हैं। पत्नियां इस पराधीनता से कब बाहर निकलेंगी। पत्नियों को इस पराधीनता से निकालने के लिए भी एक तिरंगा रैली निकालनी चाहिए।

तय था कि तिरंगा विशेष प्रकार की खादी से ही बनेगा। तिरंगे के सम्मान में कठिन ध्वज संहिता भी बनी है। समय के साथ सब कुछ बदल गया। अब न हथकरघे बचे ना ही खादी सो जहां मिले जैसे मिले तिरंगा भले ही वह अंबानी - अडानी की मिल के कपड़े का हो।

76 साल के सफर में कर्म - कांड में रूपांतरित होता चला गया। देश भक्ति जन सेवा का स्लोगन वाले आफिस में बिना घूंस लिए रिपोर्ट नहीं लिखी जाती, निर्दोषों को लपेटने में सिध्द हस्त बन गए हैं, अपराधियों से मौसियात रिश्तेदारी हो गयी है । अध्यापक अपना मूल काम पढ़ाना छोड़कर सब कुछ करने को तैयार है। कर्मचारी ऊपरी कमाई वाले किसी विभाग में डेपुटेशन पर जाने के लिए मंत्री की चौखट पर अर्जी लिए खड़े दिखते हैं। हाईवे नाकों पर अवैध वसूली कर परिवहन तंत्र की रीढ़ तोड़ी जा रही है। अब ये सब मिलकर ऊंचे डंडों में तिरंगा लगाकर भांगडा करने के बाद भी राष्ट् भक्त तो कदापि नहीं हो सकते।

जिस दिन तिरंगे के मर्म को समझ लिया जायेगा, उसकी आन-बान-शान में मर मिटने वालों के पराक्रम की गाथा नई पीढ़ी के मनो-मस्तिष्क में उतार दी जायेगी तो फिर अलग से किसी भी तरह का कोई भी अभियान चलाने की जरूरत नहीं पड़ेगी।

अश्वनी बडगैया अधिवक्ता

स्वतंत्र पत्रकार

No comments

Powered by Blogger.