मोदी सत्ता बताये हमारी मौजूदगी का मतलब क्या, हमारी जरूरत क्या ? सुप्रीम कोर्ट न्यायपालिका का सरकार की बांदी बनने से इंकार

 खरी-अखरी (सवाल उठाते हैं पालकी नहीं) 

आजादी के बाद कभी ऐसे हालात देश के भीतर विधायिका और न्यायपालिका को लेकर पैदा नहीं हुए जैसे मौजूदा वक्त में पैदा हुए हैं। 2014 के बाद से जिस तरह लोकतंत्र के तीन पिलर्स को सत्ता ने अपने सामने नतमस्तक कराया एक पिलर बाकी रह गया था मगर वह भी सत्ता के सामने नतमस्तक ना सही घुटनाटेक तो हो ही चुका था लेकिन पिछले 11 सालों में पहली बार है कि न्यायपालिका खड़े होकर देशवासियों को अह्सास करा रही है कि अभी उसकी रीढ़ की हड्डी सीधी है। सत्ता ने अभी तक जो उसकी भलमनसाहत, सौहादृता, सहनशीलता को उसकी कमजोरी समझने की भूल की है तो बहुमत के नशे में मदहोश सत्ता खुले तौर पर ये समझ ले कि न्यायपालिका कमजोर नहीं है वह संविधान प्रदत्त अधिकारों के तहत हरहाल में संविधान और लोकतंत्र को जिंदा रखेगी। सुप्रीम कोर्ट ने सत्ता और सत्ता पार्टी सहित उन तमाम लोगों को जो संविधान की शपथ लेकर संवैधानिक पदों पर बैठे हुए हैं, को ये मैसेज भी दे दिया है सुप्रीम कोर्ट पर की जा रही असंवैधानिक, अमर्यादित और छिछोरे कमेंट किसी भी हाल में बर्दास्त नहीं किए जायेंगे। संविधान ने सुप्रीम कोर्ट को जो चैक एंड बैलेंस का दायित्व सौंपा है वह उसे किसी भी हाल में सत्ता के अनुरूप चैक एंड बैलेंस नहीं होने देगी जिसके लिए सत्ता 2014 से प्रयास करने में लगी हुई है। चैक एंड बैलेंस की परिस्थिति विधान से निकल कर राजनैतिक सत्ता और सरकार में समाहित कर ली गई है और जीत की मदहोशी में ये भूल गये हैं कि दरअसल चैक एंड बैलेंस का मतलब देश के भीतर विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और मीडिया संविधान के दायरे में रहकर अपना - अपना काम करें और काम का मतलब सत्ता की जी हजूरी बजाना नहीं होता है। और इसका अह्सास खुले तौर पर सुप्रीम कोर्ट के भीतर सीजेआई संजीव खन्ना के कार्यकाल के दौर में एक फैसले में जस्टिस पादरीवाला ने चार दिन पहले और अगला संकेत दो दिन पहले जस्टिस गवई ने दे दिया है कि हिचकिये मत।

सुप्रीम कोर्ट ने जब सत्तानुकूल फैसले दिए जिसकी लंबी फेहरिस्त है मसलन जब सुप्रीम कोर्ट द्वारा बाबरी मस्जिद केस में रामजन्म भूमि के पक्ष में फैसला दिया गया और विधि विशेषज्ञों सहित समुदाय विशेष ने जब सवाल उठाये तब बीजेपी और सत्ता सुप्रीम कोर्ट की दुहाई दे रही थी और आज जब सुप्रीम कोर्ट ने संविधान में दी गई शक्ति का उपयोग कर संविधान के दायरे में रहकर फैसला दिया तो बीजेपी और सत्तापक्ष के वे लोग जो संविधान की शपथ लेकर संवैधानिक पद पर बैठे हुए हैं, सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ असंवैधानिक, अमर्यादित और छिछोरे लाछन लगा रहे हैं जो निश्चित रूप से न्यायपालिका की अवमानना के दायरे में आते हैं। उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़, सांसद निशिकांत दुबे, सांसद दिनेश कुमार शर्मा सहित बीजेपी के नेताओं ने जिस तरह से सुप्रीम कोर्ट पर अमर्यादित, छिछोरे लांछन लगाये उससे जिस तरह सुप्रीम कोर्ट आहत हुआ है उसका नजारा गत दिवस एक - दो नहीं, चार याचिकाओं की सुनवाई करते हुए याचिकाकर्ताओं के साथ न्यायमूर्तियों की टिप्पणियों में नजर आया, जब सुप्रीम कोर्ट को कहना पड़ गया कि आप क्या सोचते हैं कि हम कोई न्याय दे पायेंगे। देश में सरकार बैठी है और हम सरकार को कोई आदेश, निर्देश देते हैं तो हमें सुपर पार्लियामेंट कहा जा रहा है और ये भी कहा जाता है कि आपके पास ये अधिकार है ही नहीं। तो फिर आप सीधे तौर पर सरकार के पास जाइए। उसी को अपनी याचिका दीजिए। जो बताना कहना है वो सरकार को ही कहिए बताइए।

बीजेपी के सांसद निशिकांत दुबे के द्वारा सुप्रीम कोर्ट के फैसलों को लेकर जिस तरह से अमर्यादित, असंवैधानिक लांछन लगाये गये हैं उससे आहत होकर एक याचिकाकर्ता ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा यह कहते हुए खटखटाया कि जो कुछ भी सांसद निशिकांत दुबे ने कहा है वह सुप्रीम कोर्ट की अवमानना है तो मुझे इसकी इजाजत दें कि मैं अवमानना का नोटिस देकर अवमानना याचिका दाखिल करूं। इस पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आप हमारे पास क्यों आये हैं। जो सांसद हैं, जिस पार्टी के हैं उसकी तो सरकार है। उस सरकार के पास जाइए। अटार्नी जनरल से इजाजत लेकर उन्हीं से पूछिए अवमानना याचिका कहां दायर करें। अटार्नी जनरल जो सुप्रीम कोर्ट में सरकार की पैरवी करने के लिए नियुक्त हैं वे ही सरकार से पूछकर बतायेंगे कि सुप्रीम कोर्ट की अवमानना हुई है या नहीं। सुप्रीम कोर्ट के भीतर की ये सबसे बड़ी आवाज थी जस्टिस बी आर गवई की जो 12 मई को सीजेआई जस्टिस संजीव खन्ना के रिटायर्मेंट होने पर भारत के सीजेआई होंगे।

अलग - अलग मुकदमों के जरिए जो मैसेज सीधे-सीधे उभरकर आया कि या तो देश के भीतर सुप्रीम कोर्ट को इसी रूप में स्वीकार कर लीजिए अन्यथा जिन बातों का जिक्र आप खुले तौर पर सुप्रीम कोर्ट के बाहर कर रहे हैं वो सिर्फ आपकी अभिव्यक्ति नहीं है बल्कि आप देश के चुने हुए सांसद हैं और बतौर सांसद आप सत्ताधारी पार्टी के नुमाईंदे के तौर पर और संसद के भीतर कई मुद्दों को रख चुके हैं तो ये सिर्फ आपकी अभिव्यक्ति का मसला नहीं है ये तो आपके वो विचार हैं जो आपकी पार्टी और सरकार के विचार हैं। दूसरी याचिका पश्चिम बंगाल में राष्ट्रपति शासन लगाने और पैरामिलिट्री फोर्स की तैनाती को लेकर जस्टिस बी आर गवई और जस्टिस ए जी मसीह की बैंच के सामने आई तो जस्टिस गवई ने याचिकाकर्ता से कहा कि आप चाहते हैं कि हम पश्चिम बंगाल में राष्ट्रपति शासन लगाने का आदेश दें, केंद्र सरकार को निर्देश दें कि मुर्शिदाबाद में और ज्यादा पैरामिलिट्री फोर्स की तैनाती की जाय। जब याचिकाकर्ता ने जी कहा तो जस्टिस गवई ने फिर कहा कि आप जानते हैं हम पर दूसरों के अधिकार क्षेत्र में दखलंदाजी करने का आरोप लगाया जा रहा है । आरोप किसी और के द्वारा नहीं बल्कि देश की कार्यपालिका और विधायिका की ओर से लगाए जा रहे हैं कि हम कार्यपालिका और विधायिका के कार्यों में हस्तक्षेप करने लगे हैं। सबसे पहले  वाइस प्रेसीडेंट जगदीप धनखड़ ने फिर लोकसभा सांसद निशिकांत दुबे इसके बाद राज्यसभा सांसद दिनेश कुमार शर्मा ने आरोप लगाया और बीजेपी के तमाम नेता इनके समर्थन में खुले तौर पर बयानबाजी करने लगे हैं। जस्टिस गवई ने कहा कि आप जो कापी हमें दे रहे हैं उसकी एक कापी भारत सरकार को दे दीजिए। उन्हें तय करने दीजिए। मतलब एक झटके ने भविष्य के सीजेआई ने मौजूदा वक्त की हकीकत को सामने रख दिया कि संविधान ने चैक एंड बैलेंस बनाया है मौजूदा सरकार, सत्ता, सत्ताधारी पार्टी और उसके सांसद अपना चैक एंड बैलेंस बनाने की कोशिश न करें। जस्टिस गवई की बैंच के सामने जो वकील साहब याचिका लेकर पहुंचे थे संयोग से उनका नाम विष्णु शंकर है तो मजाकिया लहजे में ही सही जस्टिस गवई ने कहा कि आपके नाम में तो विष्णु और शंकर दोनों हैं तो आप तीसरा नेत्र खोल कर देखिये तो समझ जाइएगा कि हालात क्या हैं।

बीजेपी के सांसद ने जो अमर्यादित, अशोभनीय, निम्नस्तरीय, घटिया टिप्पणी की है उसकी निंदा करने, सांसद पर कार्रवाई करने बजाय बीजेपी ने केवल सांसद के बयान से पल्ला झाड़ लिया है जबकि देशभर से आई प्रतिक्रियाएं बताती हैं कि जो कहा गया है वह देश बर्दास्त नहीं करेगा। देश में संविधान है, लोकतंत्र है, पावर बैलेंस है, न्यायपालिका की साख सर्वोच्च है। सांसद निशिकांत दुबे ने सुप्रीम कोर्ट को जिस सीमा न लांघने को कहा वह कोई नई बात नहीं है। 2014 से जब भी बीजेपी के तानाशाही फैसलों को लेकर आवाज उठी है तो हर बार सीमा न लांघने का अलाप रागा गया है। जब नोटबंदी लागू की गई तब मीडिया को सीमा न लांघने को कहा गया, जब जीएसटी लागू की गई तब व्यापारियों को सीमा न लांघने की सीख दी गई, जब जासूसी का मामला सामने आया तो वकीलों और रिटायर्ड जजों पर सीमा लांघने की बंदिश लगाई गई, जब राफेल डील का मामला तूल पकड़ा तो मीडिया, डिफेंस रिपोर्टरों, समाजसेवियों को सीमा नहीं लांघने का पाठ पढ़ाया गया। बीजेपी ने सीमा न लांघने का जाप करते हुए देश के भीतर ऐसी परिस्थिति ला दी है कि अब सुप्रीम कोर्ट को ही आगे आकर बताना पड़ रहा है कि कौन कितनी सीमा लांघ रहा है, कौन कितनी सीमा लांघ चुका है।

देश की अदालतों में 5 करोड़ से ज्यादा मामले लंबित हैं। हर मामला संविधान के दायरे में देश की नीतियों पर सवाल खड़ा करता है । सुप्रीम कोर्ट के भीतर ही 80 फीसदी मामले तो सीधे तौर पर सरकार की नीतियों से जुड़े हुए हैं। भविष्य के सीजेआई जस्टिस बी आर गवई ने गेंद मोदी सरकार के पाले में डाल दी है कि वही बतायें कि देश को सुप्रीम कोर्ट की जरूरत है या नहीं है ? देश संविधान से चलेगा या नहीं चलेगा ? संविधान से मिली ताकत और उसकी व्याख्या का अधिकार सुप्रीम कोर्ट को है या नहीं है ? नजरें इस पर भी हैं कि क्या मोदी सत्ता चेतेगी, बीजेपी के भीतर का सत्ताई अहंकार टूटेगा, मदहोशी और अहंकार में डूबी हुई सत्ता धरातल पर खड़ी हो पायेगी क्या ? उसे यह नहीं भूलना चाहिए कि ये देश सबका है (WE THE PEOPLE, FOR THE PEOPLE, BY THE PEOPLE) । ये शुरूआती संकेत है कि हर कोई समझ जाये तो ठीक अन्यथा जो नहीं हो रहा है उसी का आरोप सुप्रीम कोर्ट पर लगाया गया है। ये मनाईये कि वो स्थिति कतई न आये जिसका जिक्र बीजेपी की अहंकारी सत्ता में मधांत सांसद कर रहे हैं गृह युद्ध - धर्म युद्ध।

अश्वनी बडगैया अधिवक्ता

स्वतंत्र पत्रकार

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